सपने है हजारो इन आँखों में,
छीनी थी किताबे तूने हाथो से,
टिपकती थी गोलिया कलम की श्याही से,
जल रही थी आग ये अन्याय की हवा से।
न शोख है,
न मंजिल है,
न ही कुछ पाना,
या न तुज से छीनना है।
जीना तो हमे भी है तेरी ही तरह पर,
जीने कहां देता तू, खाली करवा हमारा घर।
तू चाहे गाली दे,
या कोई सज़ा भी दे,
ये दहशत की ज्वाला है,
जिसने मेरा सब उजाड़ा है,
जिस दहशत की ज्वाला ने,
आज तुजे भी डराया है।
सपने है हजारो इन आँखों में,
छीनी थी किताबे तूने हाथो से,
टिपकती थी गोलिया कलम की श्याही से,
जल रही थी आग ये अन्याय की हवा से।
न क्रूर है,
न राक्षस है,
हम वही इन्सान है,
जिसकी इंसानियत को इस सरकार ने मारा है।
आंसुओ को पोछ अब छोड़ दिया रोना,
खत्म मेरी ज़िन्दगी अब क्या बचा जो खोना।
वो जातियों पे बाटते,
मजहब पे काटते,
कभी न हमको छूते,
पर अपने हाल पे भी न छोड़ते।
सपने है हजारो इन आँखों में,
छीनी थी किताबे तूने हाथो से,
टिपकती थी गोलिया कलम की श्याही से,
जल रही थी आग ये अन्याय की हवा से।
कभी नक्सली,
कभी बनाए कश्मीरी,
यू बरसात की तूने नाम की,
पर ख़ोज क्यों न कि तूने कभी भी सच्चाई की।
सपने है हजारो इन आँखों में,
छीनी थी किताबे तूने हाथो से,
टिपकती थी गोलिया कलम की श्याही से,
जल रही थी आग ये अन्याय की हवा से।
- अभिजीत मेहता
This is the 100th post on our blog. Thanks for reading, supporting and motivating us.
- Abhijeet Mehta & Brijesh Mehta
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