वो वख्त था जब बदल रही थी ज़िन्दगी,
कभी बदन में लिपटी पड़ी,
कभी नशे से धुंधलाई हुई,
कभी ख़यालो में खोई हुई,
कभी हकीकतों में रोइ पड़ी,
कभी चीखती चिल्लाती,
तो कभी डरी-सहेमी पड़ी।
घना अंधेरा, खाली रास्ता,
डरावनी खामोशी, आंसू सा चहेरा,
मुरजाता अकेलापन, काँपता बदन मेरा,
जरूरतों से लिपटा जहां था मेरा।
न कभी सोचा, न कभी महसूस किया,
अपने से आगे किसी को न रखा,
किसी का न सोचा,
न मंजिल खयाल, न रास्ते की फिक्र,
बस मानलो जैसे बनजारे सा था मैं।
एक हद से ज्यादा नशेड़ी,
एक हद से ज्यादा खुदगर्ज,
तुम कह सको मुजे हरामी,
बस ऐसा ही कुछ था मैं।
पर बदल गया सब....।
पर बदल गया सब,
जब
खयालो की खिड़की से,
हकीकत की चौखट पे,
किस्मत के खजाने से,
खुदा की मेहरबानी से,
ज़िन्दगी के गलियारों में,
आया एक इन्सान,
तुम,
जो बना पहेला नही पर,
आखरी प्यार,
तुम।
तुम्हारी जिल सी मीठी आंखों में,
गालो पे आते गढ्ढो में,
उस थोड़े से ऊपर रहते भौहे में,
पहेली मरतबा तो न खोए थे हम,
पर
जैसे वख्त थोड़ा गुजरता गया,
साथ तुम्हारा बढ़ता गया,
ये साथ आदत बनता गया,
और आदत,
आदत ज़िन्दगी बन गया।
जीने का मतलब,
खुद की पहचान,
मुजे में बसी जान,
मेरी कविताओं की शान,
अहेसासो का भान,
मुजे अपनो का ज्ञान,
और रिश्तो की धुन,
सब तू सीखा गया।
गया......
न गया नही अभी तो हो,
तुम दूर हो, पर बड़े नज़दीक हो,
ज़िन्दगी में तुम बड़े खास हो,
तुम बिना स्वार्थ मुजे अपनाते हो,
न किसी से तोलते हो,
न कभी नकारते हो।
कभी बोहोत कुछ सुनाते हो,
पर हरदफ़ा मुजे सुनते हो,
मेरी अच्छी बुरी हर आदत से वाकेफ हो,
पर तब भी मुजे आयने सा अपनाते हो।
शायद तभी,
शायद तभी कभी न हुआ वो,
पहेला नहीं,
पर मेरा आखरी प्यार हो तुम।
अब तो जिंदगी की प्यास हो,
जीने की वजह हो,
अगर सच कहु तो मेरी जरूरत हो।
इसीलिए शायद आज सबके सामने कहता हूं,
तुम मेरा आखरी प्यार हो,
तुम मेरा आखरी प्यार हो।
- अभिजीत महेता
कभी बदन में लिपटी पड़ी,
कभी नशे से धुंधलाई हुई,
कभी ख़यालो में खोई हुई,
कभी हकीकतों में रोइ पड़ी,
कभी चीखती चिल्लाती,
तो कभी डरी-सहेमी पड़ी।
घना अंधेरा, खाली रास्ता,
डरावनी खामोशी, आंसू सा चहेरा,
मुरजाता अकेलापन, काँपता बदन मेरा,
जरूरतों से लिपटा जहां था मेरा।
न कभी सोचा, न कभी महसूस किया,
अपने से आगे किसी को न रखा,
किसी का न सोचा,
न मंजिल खयाल, न रास्ते की फिक्र,
बस मानलो जैसे बनजारे सा था मैं।
एक हद से ज्यादा नशेड़ी,
एक हद से ज्यादा खुदगर्ज,
तुम कह सको मुजे हरामी,
बस ऐसा ही कुछ था मैं।
पर बदल गया सब....।
पर बदल गया सब,
जब
खयालो की खिड़की से,
हकीकत की चौखट पे,
किस्मत के खजाने से,
खुदा की मेहरबानी से,
ज़िन्दगी के गलियारों में,
आया एक इन्सान,
तुम,
जो बना पहेला नही पर,
आखरी प्यार,
तुम।
तुम्हारी जिल सी मीठी आंखों में,
गालो पे आते गढ्ढो में,
उस थोड़े से ऊपर रहते भौहे में,
पहेली मरतबा तो न खोए थे हम,
पर
जैसे वख्त थोड़ा गुजरता गया,
साथ तुम्हारा बढ़ता गया,
ये साथ आदत बनता गया,
और आदत,
आदत ज़िन्दगी बन गया।
जीने का मतलब,
खुद की पहचान,
मुजे में बसी जान,
मेरी कविताओं की शान,
अहेसासो का भान,
मुजे अपनो का ज्ञान,
और रिश्तो की धुन,
सब तू सीखा गया।
गया......
न गया नही अभी तो हो,
तुम दूर हो, पर बड़े नज़दीक हो,
ज़िन्दगी में तुम बड़े खास हो,
तुम बिना स्वार्थ मुजे अपनाते हो,
न किसी से तोलते हो,
न कभी नकारते हो।
कभी बोहोत कुछ सुनाते हो,
पर हरदफ़ा मुजे सुनते हो,
मेरी अच्छी बुरी हर आदत से वाकेफ हो,
पर तब भी मुजे आयने सा अपनाते हो।
शायद तभी,
शायद तभी कभी न हुआ वो,
पहेला नहीं,
पर मेरा आखरी प्यार हो तुम।
अब तो जिंदगी की प्यास हो,
जीने की वजह हो,
अगर सच कहु तो मेरी जरूरत हो।
इसीलिए शायद आज सबके सामने कहता हूं,
तुम मेरा आखरी प्यार हो,
तुम मेरा आखरी प्यार हो।
- अभिजीत महेता
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