बेबस था चहेरा,
उस घूंघट के नीचे,
कुचला था सन्मान,
रिवाज़ो के नीचे।
न मरज़ी थी उसकी,
न अर्ज़ी सुनी थी,
घोटा था गला उस बच्ची का,
उस मंगलसूत्र के धागे के नीचे।
महज़ बारह साल में,
वो बोझ क्या बनी थी,
या ज़िन्दगी उसकी शायद मूल्यहीन है,
इस मुल्यवान समाज के नीचे।
बेबस था चहेरा,
उस घूंघट के नीचे।
ख्वाइशें हज़ारो थी,
सपने थे आंखों में,
पर जानती थी वो की,
बसी है दुनिया इनकी इस नंगे बदन में।
क्या गाली दु समाज को,
इन से ज्यादा बुराई नही,
ओर कोई गाली में।
पूजते ये शक्ति को,
यहां भीड़ है मंदिर में,
पर न ढूंढते ये शक्ति को,
अपनी ही बस्ती में।
खाएंगे कसम ये बेटे अपनी माँ की,
पर ये बारह साल की कल की माँ,
के लिए जोर नहीं कोई आवाज़ में।
यू रोज़ हम खुश है रहते,
पर रोते ऐसी खबरों पे,
पढ़ा हुआ ये अनपढ़ समाज,
फक्र लेता बाल विवाह पे।
- अभिजीत मेहता
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