Saturday, September 7, 2019

हिंदी कविता: सिर उठाऊ, घूंघट हटाऊँ

सिर उठाऊ, घूंघट हटाऊँ,
खुद के लिए मैं,
खुद की जात से लड़ जाऊ

मैं क्या पहनू, मैं क्या खाऊ,
बाहर मैं जाऊ या न मैं जाऊ,
किसके साथ घूमूं,
किसका हाथ थामू?
शादी मैं बनाऊ या,
कुंवारी ही मर जाऊ।

ये जिसम है मेरा,
ये ज़िन्दगी है मेरी,
ये उधारी नहीं तेरी,
जो चलती रहेगी तेरी।

जन्म दे के क्या किया,
बस दूध में न धकेला,
बाकी तू ने भी तो,
सारे रिवाज़ो से तोला,
ख्वाबो को है जकड़ा,
फैसलों को मेरे तूने बेड़ियों से पकड़ा,
लड़की लड़की बोल तूने,
न कुछ है मेरा छोड़ा,
बाप ने शादी कर,
पति ने रिश्ता जोड़,
मुजे तो बस एक चीज बना छोड़ा।

छोड़ा दामन माँ का,
फिर हाथ किसीका थामा,
वो भी सारे सपने दिखा,
बस अपनी बंदी ही तय बोला।

अब डर नही है मुझमें,
तू रोकले अब मुजको,
अगर दम बचा है तुझमे,

न चिखूंगी हक के लिए,
न चिल्लाऊंगी मदद के लिए,
अब
खुद से
खुद पे
खुद के
ख़ातिर अपने पाँव पे खड़ी हो लिए।

न नारीशक्ति की गुहार दु,
न स्त्री नाम पे इनाम लू,
जुठ के ये चहेरों तले,
अपनी कामयाबी न अहसान से लू,
अपना मैं इन्साफ़ लू,
मैं डर का हाथ थाम लू,
ज़िन्दगी के इस सफर में,
अकेले ही मैं जा लडू,

सर उठाऊ, घूंघट हटाऊँ,
अपनी जात के लिए मैं,
खुद की जात से लड़ जाऊ।

- अभिजीत मेहता
Books authored by Mr. Abhijeet Mehta
















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