वो रास्तो पे चल रहे थे,
मैं हवा में उड़ रहा था,
वो बंध दरवाज़ों में मशहूर थे,
मैं खुले आसमान में बदनाम था।
वो थाली भर खाना फेंकते थे,
मैं दाना-दाना चुन खा लेता था,
वो ख़ुदा से बोहोत कुछ मांगते थे,
मैं बस बदन ढकने उनकी चढ़ाई चद्दर माँग लेता था।
वो कोसों मिल का सफर कर शांति की गुहार लगाते थे,
मैं वो माँ की गोद में सब सुख महसूस कर लेता था,
वो तरक़्क़ी का आहवान किया करते थे,
मैं तो बस अपना गुज़ारा करना चाहता था।
वो हररोज़ अपनो को धोखा दे परायों के दामन चूमते थे,
मैं परायों से मतलब निकल अपनो के दामन सजाता था,
वो सफेद कपड़ो में नँगा घुमा करते थे,
मैं नंगे बदन पे ईमान का रंग लगाए फिरता था।
वो अपने भगवान को खुदा के बंदों की शिकायत करते थे,
मैं तो इंसानियत में मज़हब ढूंढता फिरता था,
वो मशीन से इंसान भावनाओ का लहज़ा भूल गए थे,
मैं उसी लहज़े में ज़िन्दगी बिताया करता था।
वो जातिवाद और अस्पृष्यता की चोली उतारा करते थे,
मैं अपने लफ़्ज़ों से उनका सीना ढक लिया करता था,
किसी नुक्क्ड़ पे कोई भूखा इन्सान मिले,
तो उसे गले लगा ये नज़्म सुनाया करता था।
मैं जला कर दिल अपना कागज़ पे रूह उतारा करता था,
पसंद आए न आए एक शायर सा बस मैं सच लिखा करता था,
मैं सच लिखा करता हूँ।
- अभिजीत मेहता
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